अश्लीलता नहीं, ये जीवनशैली है

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

अश्लीलता नहीं, ये जीवनशैली है
समाज में अश्लीलता को अभिशाप की उपाधि दी जाती है। लेकिन उपाधि देने वाले भी इससे कोई परे नहीं। समाज के कुछ ठेकेदारों ने तो इसके लिए पश्चिमी सभेयता संस्कृति को दुहाई देते हैं कि हमारे समाज में पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति हावी हो रही है। लेकिन वे अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखते। देखे भी क्यों ? वे आजाद देश में रहते है संविधान द्वारा कुछ भी कहने का अधिकार प्राप्त है। फिर किस बात की चिंता।
आज वैश्वीकरण के दौर में हम शामिल हैं। विश्वशक्ति को टक्कर देने की मादा रखते हैं। परंतु रहन-सहन की बात आते ही सभ्यता-संस्कृति और ढोंगापंथी जिम्मेदारी को सामने लाकर दूसरों को कोसना शुरू कर देते हैं। आखिर क्यों और कब तक.....?
फिल्म सीरियल को देखते ही दो टूक में कह देते हैं कि सीधे अश्लीलता को परोसा गया है। इससे हमारी संस्कृति क्षीण हो रही है और हाथ में झंडा लेकर निकल जाते हैं कि इसे हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम सच्चे देशप्रेमी हैं। लेकिन देश के लिए मर-मिटने की बात करें तो वो कोसो दूर तक नजर नहीं आएंगे। इस बिडंबना कहे या कुछ और आजादी की साठ साल बीते जाने के बाद भी इसका सही जवाब नहीं है।
चंद समय के लिए मान भी लें कि पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति शहरों में दस्तक दे रही है। लेकिन बात तब हजम नहीं होती जब कोसो दूर-दराज के गांवों पर नजर जाती है। जो आज भी तमाम बुनियादी सुविधाओं से दूर है। जो कि कोसो दूर है शहर की रंगीली छाया से। वो तो दो जून की रोटी के लिए दिन भर जीतोड़ मेहनत करते हैं। उन्हें तो अपनी भूख मिटाने की पड़ी होती है। ना कि पहनने-ओढ़ने की तौर-तरीके की। लेकिन खुलापन की बात करें तो वहां भी बदलाव की रीत बहती नजर आती है। वे लोग भी अपने तरीके से शहरों को टक्कर देने की क्षमता रखते हैं। भला उन्हें क्या पता कि क्या है हमारी सभ्यता और क्या पश्चिमी सभ्यता.....?
जो खुलापन शहर में फिल्म, सीरियल नाईट क्लबों में देखने को मिलते है वही खुलापन गांव के नाटक-नुक्कड़, गली-चौराहे, कस्बों में असानी से दिखने को मिल जाते हैं और वे तो उसे एक जिंदगी के हिस्सा मानते है।
देखने वाली बात यह है कि उन्हें किसी से कोई शिकायत भी नहीं है। अपनी मर्जी से जिंदगी जीते है। जिसे अश्ललीलता कहे या कुछ और उन्हें कोई परवाह नहीं। फिर ढो़गांपंथी दिखाने वाले क्यों परेशान होते हैं ? उन्हें भी कोई हक नहीं है कि दूसरों की सभ्यता-संस्कृति को कोसने की और बदलते परिवेश को अश्लीलता कहकर पल्ला झाड़ लेने की।
बेहतर होगा कि स्वीकार कर लें कि ये सब किसी की देन नहीं है ना ही इससे कोई दूर नहीं है। समय बदल चुका है, जाहिर है समय के साथ-साथ सबकुछ बदल रहा है, रहन-सहन, खान-पान, शान-शौकत। माने लें कि देर से ही सही पर हनारे बीच खुलापन आ चुका है। बस अपनाने की जरुरत है और देखने की नजरिया में बदलाव लाने की जरुरत है। इसी में भलाई है।

इससे अलावे एक अपनी आदत को बदलने की कोशिश करें और अश्लीलता जैसे भद्दे शब्द के बदले खुलापन कहने की आदत डाल लें। ताकि आने वाले दौर को अगुंली उठाने का मौका न मिलें।

वोट मत मांगना! वरना...

लोकसभा चुनाव सिर पर है। राजनीतिक पार्टियों ने भी चुवानी अखाड़े में उतरने की पूरी तैयारी कर ली है। लेकिन इस बीच देश की जनता मायुस और गुस्से में हैं। जनता की नाराजगी की भनक पार्टियों को भी लग चुकी है और मनाने की रणनीति भी तैयार की जा रही है। कहते हैं कि जनता सब जानती है। लेकिन अब यह कहावत पुरानी हो चुकी है। अब कुछ हदतक कह सकते हैं कि जनता सब कुछ जानती ही नहीं पूछती भी है।
हाल में हुए विधानसभा चुनाव के परिणामों से ये तस्वीर साफ हो गई कि जनता बुनियादी सुविधाओं को असली चुनावी मुद्दा मानती है। मंदिर, मस्जिद और न जाने इस तरह के कई मुद्दे हैं जिसके सहारे पार्टियां चुनावी बैतरनी पार करने की कोशिश करने की कोशिश करती है और आगे करेगी। पर सच्चाई ये है कि ज्यादातर जनता-जनार्दन इसे मुद्दा ही मानती।
जनता तो रोटी, कपडा़ और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं को लेकर नेताजी से हिसाब-किताब करना चाहती है। फीलगुड और डील या नो डील की बात तो तब होगी जब पेट में रोटी, तन पर कपड़े और सिर छुपाने के लिए छत होंगे। जिस के नीचे बैठकर फीलगुड और डील या नो डील के बारे में मंत्रणा करेंगे।

देश की आबादी की 70 फीसदी लोग गांव में बसते हैं पर उनकी हालत आज भी अंधेर नगरी चौपट राजा से कम नहीं है। आप सोचेंगे कि सरकारी खजाने से अरबों रुपए गांव के विकास के लिए रोजगार गारंटी योजना, भरण पोषण योजना जैसे तमाम स्कीमों के तहत खर्च किए जा रहे हैं फिर ये हालात।

आप यकीन कीजिए, मैं भी एक छोटे से गांव से आता हूं। जिसे अभागा गांव कहे या गांव होने का अभिशाप! जहां की स्थिति 10 साल पहले की तुलना में अभी भी कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है। सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य और रोजगार की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। हां, ये जरूर है कि लोग मोबाइल पर बात करने लगे हैं। इसके अलावा एक बड़ा परिवर्त्तन हुआ जो सामने उभरकर दिखता है। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए की सरकार थी और लोग आपस में भारत उदय, फील गुड जैसे मुद्दों पर बातें करते थे। और अब शायद एकबार फिर डील या नो डील पर आपस में मंत्रणा करेंगे। लेकिन हैरानी की बात ये है गांव के लोग इसे अपनी दिनचर्या ने जोड़कर नहीं देखते हैं। वो तो इसे शहरी बाबू की शान-शौकत से जोड़कर केवल प्रशंसा करते हैं।

मुझे उम्मीद है आप यहीं सवाल खड़े करेंगे कि एक गांव से पूरे देश की हालत की तुलना नहीं की जा सकती। हां, ये सच है मैं आपकी भावनाओं का कद्र करता हूं और मानता हूं कि कि गांवों में देश की आत्मा वास करती है। लेकिन अब वो आत्मा धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही है। मैं एक बार फिर आपको यकीन दिलाना चाहूंगा कि देश के अधिकतर गांवों की स्थिति कमोवेश एक जैसी है। कहीं के किसान ऊपज नहीं होने से खुदकुशी कर रहे हैं तो कहीं के किसान अपनी भूमि को बचाने के लिए जान दे रहे हैं।

अगर किसान की समस्या को थोड़ी देर के लिए नरअंदाज भी कर दें तो भी निचले तबके के लोग पेट भरने के लिए मंदी की वजह से रोजगार छिन जाने से मौत को गले लगा रहे हैं या फिर अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं।

जहां तक विकास की बात है तो बड़े-बड़े शहरों में उसकी चकाचौंध देखी जा सकती है। बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लैक्स सिनेमा हॉल, मेट्रो, क्लब और आलीशान इमारतों को देखकर लगता है कि ये है नई सदी का भारत। जो कि वैश्वीयकरण के इस दौर में कदम से कदम मिलाकर चल रहा है। लेकिन गांवों के बिना संपूर्ण भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। और जब उस शॉपिंग मॉल के सामने खड़े होकर देश की 70 फीसदी आबादी की दिशा और दशा के बारे में कुछ पल सोचते हैं तो शॉपिंग मॉल की तस्वीर और भारत की हकीकत धूमिल पड़ जाती है। बिना गांव के विकास हुए देश की समुचित विकासदर को पाना कतई मुमकिन नहीं है।

दरअसल ये सारी समस्याएं तो गांव वालों के लिए दिनचर्या का हिस्सा है। लेकिन इसकी सुगबुगाहट दूसरे छोर तक प्रत्येक 5 साल बाद चुनावी सरगर्मी के बीच ही पहुंच पाती है। पक्ष-विपक्ष, लेफ्ट-राइट सभी चुनावी अखाड़े में एक-दूसरे पर भारी पड़ने के लिए या कहें जनता को अपनी ओर करने के लिए इन मुद्दों को उठाते हैं। मुमकिन है कि इसबार भी सभी दलों द्वारा चुनावी अखाड़ों में ये दावें चली जाएगी। लेकिन इन सबके बीच जनता धीरे-धीरे अपने नेताओं की नब्ज टटोलने में कामयाबी हासिल कर रही है। जिसका जीता जागता सबूत है मुंबई आतंकी हमलों के बाद देश की जनता का गुस्सा नेताओं के प्रति जहर बनकर निकला। पहली बार बड़े तादाद में लोगों ने सड़क पर उतरकर नेताओं के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की। जिसे मीडिया के माध्यम से पूरे देश की जनता ने देखी और शायद सबक भी ली होगी। उम्मीद है कि सबक ही नहीं कमर भी कस ली होगी क्योंकि लोकसभा चुनाव दहलीज पर है। निश्चिततौर पर जनता-जनार्दन अपने-अपने नेताओं से 5 साल पहले किए वादों का एक-एक कर हिसाब लेंगी। जो अपने वादों पर खरे उतरेंगे उन्हें तो फिर खुशी-खुशी संसद भवन तक दोबार पहुंचाने के लिए वोट डालेगी। वहीं जो केवल वादों के नेता निकलेंगे उन्हें तो शायद जनता यही कहेगी वोट मत मागना! वरना अच्छा....

अमित कुमार (मीडिया फेस)