खून के आंसू रुलाया साल 2009 ने!

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

नया साल दस्तक दे रहा है। हम दुआ करेंगे कि नया साल आपके लिए ढेरों खुशियां ले आए। लेकिन इस नए साल की तरफ कदम बढ़ाते वक्त ज़रूरी है गुजरते हुए साल पर एक नज़र डालना, क्योंकि इतिहास ही भविष्य की नींव रखता है। आखिर कैसा रहा साल 2009। क्या हैं इस साल की कड़वी यादें जिसका असर आने वाले साल पर हो सकता है। क्या थी हमारी खामियां जिनसे हमें सबक लेने और होशियार रहने की ज़रूरत है।

बाढ़ की खौफनाक यादें
2009 में आई बाढ़ किसी प्रलय से कम नहीं था। देश के पांच राज्य कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा में भयानक बाढ़ आई। लेकिन तीन राज्य इस बाढ़ की चपेट में सबसे बुरी तरह आएं। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र।
इन तीनों राज्यों में लगभग पचास लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए।

आंध्र प्रदेश के पांच कूरनूल, महबूबनगर, कृष्णा, गुंटूर और नालगोंडा पर बाढ़ का कहर बरपा। हजारों घर पानी में डूब गए। सेना लोगों को खोज रही थी। बचाने की कोशिश कर रही थी। सबसे बुरी तरह से प्रभावित जिसे कूरनूल में हालात और गंभीर थे। पांच अक्टूबर तक यहां के लाख लोगों को बाढ़ अपनी चपेट में ले चुका था। 43 हजार घरों को पानी ने लील लिया था।

कर्नाटक का भी पिंड इस विपदा से नहीं छूटा था। उसके 15 जिले बाढ़ से प्रभावित थे। बाढ़ का सबसे ज्यादा असर हुआ था बीजापुर, रायचूर, उत्तर कन्नड़, धारवाड़, और कोप्पल में। आंध्र और कर्नाटक में कुल मिलाकर सात लाख से ज्यादा लोग सरकारी रिलीफ कैंप में रहे के लिए मजबूर हो गए। कईयों को तो वो भी नसीब नहीं हुआ। मानसून का इस कहर ने दक्षिण को खून के आंसू रुलाया। जिसका दर्द आज भी कायम है।

महाराष्ट्र के कई जिलों में लगातार बारिश की वजह से नदियां उफान मारने लगी। राज्य के आठ जिलों में बारिश ने भारी तबाही मचाई। यहां के लगभग एक लाख हेक्टेयर जमीन की फसल पानी में डूब गई। बारिश ने राज्य में 25 से ज्यादा लोगों की जान ले ली।

उधर गोवा का हाल भी कुछ अच्छा नहीं था। वहां पर भी 2 अक्टूबर से पांच अक्टूबर तक लगातार बारिश हो रही थी। यहां के कई इलाकों में बाढ़ आ गया। मदद के लिए सेना और नौसेना को आना पड़ा। अकेले कैनाकोना इलाके में 20 से 25 करोड़ का नुकसान हुआ है। भातपोल, नवोदया और किंडलेम इलाके में भी पानी नें हाहाकार मचाया है।

गुजरात के जुनागढ़, पोरबंदर और जामनगर जिले में भारी बारिश ने अपना कहर बरपाया था। सड़क, पुल यातायात के सभी साधन पानी में डूब गए थे। खेत खलिहान भी पानी की भेट चढ़ गए थे। अरबों का नुकसान हुआ था।

किसानों की गोद सूनी रही इस साल
2009 में देश के किसी हिस्से में बाढ़ ने कहर बरपाया तो कहीं सूखा आफत बनकर टूटा। राजस्थान, यूपी, विदर्भ पर सूखे की ऐसी मार पड़ी कि लोग त्राहि त्राहि करने लगे। जहां कि फसलें बारिश नहीं बर्बाद कर पाई वहां सूखा अपना काम कर गया। कर्ज के बोझ तले दबे कई किसोनों ने तिल-तिल कर मरने की बजाए मौत का रास्ता चुन लिया।

37 साल में पहली बार देश ने भयानक सूखे का सामना किया। पानी की आस लगाए किसान के दिन बीतते रहे लेकिन कठोर बादलों से एक बूंद न बरसी। ये था 2009 में पड़े सूखे का कहर। सूखे ने देश के एक बड़े हिस्से पर कहर ढाया। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान महाराष्ट्र का विदर्भ इलाका, और आंध्र प्रदेश भी सूखे की चपेट में आ गया। किसान करे तो क्या करे। थक हारकर खुदकुशी का रास्ता चुन लिया।

पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गन्ना उत्पादक क्षेत्र में औसत मात्रा से 91 फीसदी कम बारिश हुई। बुंदेलखंड का हाल तो सबसे बुरा था। पानी की कमी से खेत के खेत सूखते जा रहे थे। किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे थे। दूसरी तरफ बिहार एक अलग ही समस्या से जूझ रहा था।

उत्तरी बिहार जहां बाढ़ की चपेट में था तो वहीं दक्षिणी बिहार पर सूखे की मार पड़ी। राजस्थान के 34 में से 26 जिले सूखे की चपेट में थे। इनमें जयपुर, टोंक, सवाई माधोपुर, करौली, दौसा, अजमेर और भीलवाड़ा में हालात भयानक थे। पूर्वी राजस्थान के बाकी जिलों की हालत भी खराब थी।

आंध्र प्रदेश के कई जिलों में अगस्त के महीने जहां 624 मीली मीटर बारिश होती थी वहीं बारिश की ये मात्रा गिरकर मात्र 153 मीली मीटर रह गई। ये आंध्र प्रदेश के लिए पिछले 50 सालों में सबसे खराब स्थित थी। और जब बारिश हुई तो इतनी हुई कि बाढ़ आ गई।

महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके का हाल तो और भी खराब था। सूखे से बर्बाद होती फसल को देख कई किसानों ने आत्महत्या कर ली।

देश में सूखे के हालात को देखते हुए सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। शुरुआती दिनों में कृषि मंत्री शरद पवार मानसून आने में हो रही देर को सामान्य मान रहे थे। लेकिन दिनों दिन खराब होती स्थिति और संसद में विपक्षी दलों के बढ़ते दबाव ने उन्हें देश के प्रभावित हिस्सों को सूखा ग्रस्त घोषित करने पर मजबूर कर दिया।

जब तक सरकार को हालात की गंभीरता का अंदाजा हुआ बात हाथ से निकल चुकी थी। फसलों को भारी नुकसान पहुंचा। सरकार के राहत पैकेज भी काम न आए। नतीजा खाने पीने की चीजों के दाम आसमान छूने लगे। इसका सीधा सीधा असर आम इंसान की जेब पर पड़ा। यानि एक आम आदमी के लिए बहुत बुरा साल था 2009।

साल 2009 में भस्मासुर बनकर उभरी महंगाई
सूखे और बाढ़ की मार झेल रहे देश का सामना अब महंगाई के भस्मासुर से होना था। फसलें बर्बाद होने से उत्पादन में कमी आ गई। जाहिर है करोड़ों लोगों की जेब पर डाका तो पड़ना ही था। खाने पीने की चीजों के दाम इतने बढ़ गए कि एक-एक निवाला हलक से उतरना मुश्किल हो गया।
महंगाई पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए। बार-बार दावे किए कि जल्द ही महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। लेकिन सरकार की तमाम नीतियां बढ़ती कीमतों के आगे बौनी साबित हुईं। 2009 में कीमतें बढ़ती रहीं और आम आदमी पिसता रहा।

वहीं 2009 तो खत्म होने को है लेकिन आम आदमी का सवाल खत्म नहीं हुआ। उसकी जुबान पर यही सवाल है कि क्या आने वाले दिनों में महंगाई खत्म होगी? 2009 की तरह ही आम आदमी 2010 से भी डरा हुआ है। इसलिए वो सरकार से भी एक सवाल पूछ रहा है। तुमने अब तक मेरे लिए क्या किया?

दरअसल महंगाई पर राजनीति तो खूब हुई लेकिन आम आदमी को राहत देने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनी। आम आदमी को उसके हाल पर छोड़ दिया सरकार ने। अब आम आदमी का मुद्दा अगर संसद में न उठे तो फिर पक्ष और विपक्ष किस काम के। आम आदमी के घर में ही नहीं संसद के दोनों सदनों में महंगाई के मुद्दे पर मार मची। सरकार के कोढ़ में खाज का काम किया वित्त मंत्रालय संसदीय स्थाई समिती की रिपोर्ट ने जिसमें मंत्रालय को महंगाई पर लगाम लगाने में पूरी तरह नाकाम बताया गया।

सरकार ने भी कहीं न कहीं मान लिया कि आम आदमी को महंगाई से निजात दिलाने का उसके पास रास्ता नहीं है। उसपर लगातार आते महंगाई दर के आंकड़ों ने उसे कई बार डराया। खाद्य पदार्थों की महंगाई दर दिसंबर आते-आते 20 फीसदी तक पहुंच गई। सरकार ने चिंता जताई लेकिन हुआ कुछ नहीं। जाहिर है कीमतों पर काबू पाने के तमाम दावे हवा हो गए इसलिए सरकार के पास आम आदमी को दिलासा देने के लिए सिवाए चिंता जताने के और कुछ नहीं बचा।

शुरू में तो सरकार ने कहा कि आयात बढ़ाकर महंगाई को काबू में कर लेंगे। लेकिन ये दावा भी जल्द ही गलत भी साबित हो गया। पता चला कि विदेश से ऊंचे दाम पर होने वाला आयात आम आदमी की झुकी हुई कमर को पूरी तरह तोड़ देगा। इसलिए अगली फसल आने तक महंगाई को काबू करने की बात तय हुई। इसी बीच आया कृषि मंत्री शरद पवार का वो बयान जिसने बेतहाशा बढ़ती महंगाई के लिए ग्लोबल वॉर्मिंग को जिम्मेदार ठहरा दिया। यानि महंगाई बढ़ने के लिए सरकार की नीतियां नहीं ग्लोबल वॉर्मिंग जिम्मेदार है।

इतना ही नहीं सरकार ने तो महंगाई के लिए राज्य सरकारों पर ठीकरा फोड़ दिया। केंद्र के मुताबिक वो गरीबों के लिए सस्ता राशन तो जारी कर रही है लेकिन राज्यों का राशनिंग सिस्टम इतना खराब है कि इसका फायदा उन तक नहीं पहुंच पा रहा। यानि केंद्र तो अपनी तरफ से राशन भेजकर चैन की बंसी बजा रहा है अगर राज्य आम आदमी तक उसे न पहुंचाएं तो केंद्र का क्या कसूर। और दोनों की इस लड़ाई में आम आदमी पिसता है तो पिसता रहा।

सरकार ने आम आदमी की नहीं सुनी। उसे लगा कि अपनी बारी का इंतजार कर रही विरोधी पार्टी उसका दर्द समझेगी। लेकिन यहीं भी आम आदमी को दगा ही मिला। विरोधियों ने तो सिर्फ राजनीति चमकाने के लिए महंगाई पर सरकार को घेरने का काम किया। आम आदमी का दिल एक बार फिर टूट गया।

महंगाई शायद चुनाव जीतने का मुद्दा नहीं होती। मुद्दा बनते हैं मंदिर मस्जिद, मुद्दा बनता है आतंकवाद। 2009 में यही जंग सरकार और विरोधी दलों के बीच चल रही थी। एक जंग आम आदमी खुद से लड़ रहा था। जंग जिंदगी की। जंग अपना पेट भरने की। 2009 में आम इंसान की किसी ने नहीं सुनी न सरकार ने न भगवान ने। बाकी जो बचा था महंगाई मार गई। ऊपर से मंदी ऐसी छाई कि कहने ही क्या? खाने पीने की चीजों के दाम तो बढ़ते रहे लेकिन तनख्वाह नहीं बढ़ी। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया। सोचिए साल 2009 में कैसे गुजारा किया आम आदमी ने?

मंदी की मार से घुट-घुट कर जिया
2009 सबसे बुरा उन लोगों के लिए साबित हुआ जिनकी नौकरियां छीन ली गईं। मंदी की मार ने कई कंपनियों को अपना काम समेटने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजा ये हुआ कि कई साल से काम कर रहे हजारों कर्मचारियों की छंटनी हो गई।

साल 2008 में अमेरिका से उठा मंदी का तूफान 2009 में भारत पहुंच गया। साल शुरू होने से पहले ही अमेरिका के दो बडे़ बैंकों लेमन ब्रदर्स और मेरि लिंच का दीवालिया होना भारत के बैंकों में भी हड़कंप मचा गया। कई लोग तो मारे डर के बैंकों से अपना पैसा निकालने लगे। वो घबरा गए कि कहीं उनका बैंक दीवालिया न हो जाए। लेकिन मंदी का असली असर तो भारत में दिखना अभी बाकी था।

अमेरिका के बाद मंदी दूसरे देशों में भी पहुंची और इसके साथ ही वहां काम कर रहे भारतीयों की नौकरियां चली गईं। साल की शुरुआत में ही ग्लोबल मंदी का राक्षस विदेश में तकरीबन 20000 भारतीयों की नौकरी एक झटके में खा गया।

विदेश जाकर पैसा कमाने की चाह ने सैकड़ों नौजवानों के सपने चकनाचूर कर दिए। साल खत्म होते-होते दुबई दीवालिया होने की कगार पर पहुंच गया। नतीजा ये हुआ वहां काम करने गए भारतीयों की नौकरी चली गई। जो लोग ईद की छुट्टी में अपने घर आए थे उन्हें एसएमएस पर ही नौकरी पर न लौटने का आदेश मिल गया।

जानकारों ने कहा कि पिछले 10 साल में ऐसे बुरे दिन भारत ने नहीं देखे। साल 2009 बेहद खराब रहा। साल भर भारत में छंटनी का सिलसिला चलता रहा। जिस सेक्टर पर देखो मंदी का साया। आईटी, रियल एस्टेट, मीडिया इंडस्ट्री में हजारों लोगों की नौकरियां चली गईं। छोटी मोटी कंपनियां तो मंदी की आंधी में उड़ गईं।

जिस कंपनी को देखो कर्मचारियों की नौकरी खाने पर आमादा थी। जो लोग किसी तरह छंटनी से बच गए वो साल भर इसी चिंता में जीते रहे कि नौकरी हाथ से अब गई, कि तब गई। न जाने कंपनी कब पिंक स्लिप थमा दे। पिंक स्लिप यानि हिसाब करके नौकरी से निकालने का फरमान।

हालात और बुरे होते गए कई दिग्गज कंपनियों में कर्मचारियों की न तो तरक्की हुई न तनख्वाह बढ़ी। ऊपर से कंगाली में आटा गीला ऐसा कि तनख्वाह में कटौती कर दी गई। कंपनी की तरफ से मिलने वाली कई सुविधाएं भी खत्म कर दी गईं। दफ्तरों की कैंटीन में मिलने वाली सब्सिडी भी वापस ले ली गई। यानि जितनी भी तनख्वाह हाथ में बची उसी से गुजारा करना पड़ा। शुक्र इस बात का था कि चलो कम से नौकरी तो बची है।

साल जाते-जाते सरकार की तरफ से आई एक बुरी खबर। अब पर्क्स यानि कंपनी की तरफ से मिलने वाले भत्ते भी तनख्वाह में जोड़ दिए गए और उन पर टैक्स भी कटेगा। पर्क्स पर ये टैक्स अप्रैल 2009 से लगेगा। यानि अगर आपको कंपनी की तरफ से कार का मेंटेनेंस और पेट्रोल का खर्च मिलता है, ड्राइवर मिला है और उसका निजी इस्तेमाल हो रहा है तो ये सब तनख्वाह में जुड़कर टैक्स का बोझ बढ़ाएगा।

यानि एफबीटी खत्म करके सरकार ने जो साहत लोगों को दी थी वो साल के आखिर में वापस भी ले ली। आम आदमी तो आम आदमी खास आदमी की जेब से भी 2009, जाते जाते कुछ न कुछ लेकर ही गया।
तबाही के लिए याद रहेगा साल 2009

देश की तरक्की का सबसे ज्यादा दारोमदार कृषि पर होता है। लेकिन 2009 में मॉनसून और सूखे ने इस सेक्टर को तबाह कर दिया। निर्यात गिरने से करोड़ों डॉलर का नुकसान हुआ। उधर रियल एस्टेट कारोबार का हाल भी बहुत बुरा था।

दरअसल मंदी ने देश की सूरत ऐसी बिगाड़ी कि उसे संवारते-संवारते पूरा साल बीत गया। विकास के पहिए की रफ्तार घूमते घूमते मंद पड़ गई। देश की तरक्की का एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र पर टिका हुआ है। पहली तिमाही में कृषि क्षेत्र की विकास दर 2.5 फीसदी थी। दूसरी तिमाही में कृषि विकास दर गिरकर सिर्फ 1 फीसदी रह गई।

इसकी सबसे बड़ी वजह थी मॉनसून और सूखे ने जो कहर। संतुलित विकास के लिए इस क्षेत्र को 4 फीसदी की दर से बढ़ना चाहिए। लेकिन कृषि का विकास हुआ सिर्फ एक फीसदी। अब तीसरी तीमाही में तो इसके नकारात्मक होने का डर सता रहा है। जब देश में अनाज ही नहीं हुआ तो विकास क्या होगा। रबी की फसल के उत्पादन में करीब 18 फीसदी की गिरावट आई।

2009 में मेन्युफैक्चरिंग, एक्सपोर्ट और सर्विस सेक्टर ने विकास में भूमिका तो निभाई लेकिन इनका हाल भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा। सरकार अब उम्मीद कर रही है आने वाले वक्त में विकास मौजूदा दर 8 फीसदी से ज्यादा हो। आम इंसान ही नहीं सरकार भी इस बुरे साल को जल्द से जल्द भूलना चाहेगी।

सहवाग रिचर्ड्स से आगे!

बुधवार, 16 दिसंबर 2009


80 के दशक में विवियन रिचर्ड्स का खौफ इस कदर था कि उन्हें सबसे विस्फोटक बल्लेबाज का रुतबा हासिल था। आज वही रुतबा वीरेंद्र सहवाग को मिला चुका है। ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि विव बड़े या वीरू?

टीम इंडिया के पूर्व कप्तान और सहवाग के शुरुआती मार्गदर्शक सौरव गांगुली ने बेबाक अंदाज में एक बार फिर से कह डाला कि सहवाग को अब भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में लंबा रास्ता तय करना है। खुद सहवाग भी अपने पूर्व कप्तान की राय से इत्तेफाक रखते हैं।

लेकिन, इतना तय है कि जिस तरह से सचिन तेंदुलकर को भारत के बाहर कभी भी क्रिकेट जगत सर डॉन ब्रैडमैन से बेहतर नहीं मानेगा ठीक उसी तरह सहवाग को भारत से बाहर शायद विव रिचर्ड्स से बेहतर नहीं माना जाएगा। सर्वकालीन महान खिलाड़ी से तुलना होना ही अपने आप में एक अनोखी बात है। आखिर, तेंदुलकर की महानता लारा, पोंटिंग, हेडेन या फिर गिलक्रिस्ट से तभी अलग हुई जब खुद डॉन ने उनके खेल में अपनी शैली की झलक देखी।

ऐसे में अगर सहवाग की असाधारण आक्रामकता में किंग रिचर्ड्स की झलक मिलती है तो इससे अच्छी तारीफ और क्या होगी? वनडे क्रिकेट में सहवाग रिचर्ड्स के करीब तो क्या टेस्ट क्रिकेट में खुद की ही साख के करीब नहीं पहुंच पाते।
रिचर्ड्स ने पूरे करियर के दौरान 187 वनडे खेले और मिडिल-ओवर्स में बल्लेबाजी की। इस दौरान दोनों सहवाग के नाम 8 तो रिचर्ड्स के नाम 11 शतक है। हालांकि अर्धशतक में ये फासला 17 का है। रिचर्ड्स के नाम 45 और सहवाग के नाम 28 है। स्ट्राइक रेट में सहवाग का पलड़ा भारी है लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि रिचर्ड्स ने ना तो कभी 'सर्किल' और न ही 'पावर-प्ले में बल्लेबाजी की। सबसे अहम अंतर दोनों बल्लेबाजों के बीच 16 की औसत का है।

ज़ाहिर सी बात है वनडे क्रिकेट में सहवाग रिचर्ड्स के करीब तो क्या अपने समकालीन धुरंधरों में से तेंदुलकर, गांगुली और जयसूर्या के भी पास नहीं पहुंचते हैं। ऐसे में खुद को रिचर्ड्स की श्रेणी में लाने के लिए सहवाग को राजकोट जैसी कई पारियां खेलनी होगी। वनडे में अगर विवयन रिचर्ड्स के आंकड़े बेहतर हो तो टेस्ट में बाजी सहवाग मार लेते है। ये तो सब मानते है कि नजफगढ़ के नवाब में सर विवयन रिचर्ड्स की झलक मिलती है। लेकिन क्या वीरू की लंबी चौड़ी टेस्ट पारियां उन्हें रिचडर्स से बेहतर बनाती है?

अगर 72 टेस्ट मैच के आंकड़ों को देखें रिचर्ड्स और सहवाग के औसत 3 का फर्क है। लेकिन स्टाइक रेट मतलब हर सौ गेंद पर ज़्यादा रन बनाने के माल में सहवाग और रिचड्स के बीच करीब 10 अंक का फर्क है। इसका साफ मतलब है कि सहवाग रिचडर्स से ज़्यादा तेज़ी से रन जुटाते हैं। यही नहीं 72 मैचों तक रिचर्ड्स नाम 150 से ज़्यादा रनों वाली सिर्फ 6 पारियां थी, जबकि सहवाग के नाम ये संख्या दुगुनी है। शतक के मामले में इस दौरान रिचर्ड्स सिर्फ सहवाग से 1 अंक से बेहतर हैं।

अगर 5000 टेस्ट रन बनाने के पैमाने को आधार मानें तो सिर्फ कपिल देव और ऐडम गिलक्रिस्ट का स्ट्राइक सहवाग से बेहतर है। लेकिन ये दोनों खिलाड़ी मुख्य बल्लेबाज़ होने के बजाए अपने टीम के लिए ऑल-राउंडर थे औऱ 7वें नम्बर पर बल्लेबाज़ी करते थे।

मौजूदा पीढ़ी में भले ही लोगों को विवियन रिचर्ड्स के आंकड़े ज़ुबा पर नही हों लेकिन उनका नाम आते ही हर किसी को उनके खौफ, दबदबे और महानता का एहसास तुंरत हो जाता है। आने वाली पीढ़ी भी अगर सहवाग के रिटायरमेंट के बाद उनके आंकड़ों की बजाए सिर्फ उनके नाम से ही रोमांचित हो उठे और वाह करने लगे तो कोई हैरान नहीं होगा। और ये कमाल रिचर्ड्स का कोई सच्चा उत्तराधिकारी ही कर सकता था।

बॉलीवुड में कितने भगवान?

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009


बॉलीवुड में कलाकारों को भगवान कहने कहा सिलसिला शुरू हो गया है। खासकर अमिताभ, शाहरुख, राजकपूर और आमिर को भगवान कहने वालों की कमी नहीं है। आखिर क्यों इन्हें भगवान कहा जाता है?
दरअसल सितारों की इस मायानगरी में अचानक भगवान का सिलसिला क्यों शुरू हो गया। अभिषेक बच्चन ने कह दिया मेरे पिता अमिताभ बच्चन बॉलीवुड के भगवान हैं। विवेक ओबराय ने कहते हैं कि उनके लिए तो शाहरुख खान भगवान हैं। जबकि रणबीर कपूर के लिए उनके दादा राजकपूर भगवान है। वहीं आमिर की तो बात ही अलग है उन्होंने खुद को ही भगवान बता दिया।
क्या फिल्मों में ब्रेक देने वाले लोग जो पहले गाड फादर कहलाते थे अब उन्हीं का नया नाम हो गया है भगवान? या फिर बड़े सितारों को भगवान कहने के पीछे कुछ और है राज।
अमिताभ
अमिताभ बच्चन सिर्फ किसी फिल्म में काम करके उसका मेहनताना लेने वाले कलाकार नहीं हैं। बल्कि अमिताभ फिल्मों के अलावा एड और टेलीविजन की दुनिया में भी बड़े नाम हैं।
एबी कार्प नाम की कंपनी के जरिये अमिताभ बच्चन से सैंकड़ों लोगों की रोजी रोटी चलती है। फिर भी भगवान कहे जाने के इस चलन से बॉलीवुड के बहुत सारे जानकार इत्तेफाक नहीं रखते।
शाहरुख
शाहरुख खान सिर्फ एक फिल्म स्टार नहीं बल्कि खुद में ही एक इंडस्ट्री है। रेड चिलीज इंटरटेनमेंट के नाम से शाहरुख का प्रोडक्शन हाउस सिर्फ अपनी फिल्में ही नहीं बनाता बल्कि दूसरे सितारों को भी काम देता है। कई हजार टेक्नीशियन्स और अभिनेताओं के लिए शाहरुख खान भगवान हैं।
आमिर
आमिर खान ऐसा खान जो खुद फिल्मों के पीछे नहीं भागता बल्कि फिल्में इनके पीछे भागती है। साल में सिर्फ एक फिल्म ही करते हैं लेकिन कोई कसर नहीं छोड़ते। ये शख्स आज जिस बुलंदी पर है वहां पहुंच कर ये खुद को ही भगवान कह देता है।
राज कपूर
राज कपूर फिल्मों में काम करने को एक बिजनेस की शक्ल दे देने के काम की शुरुआत अगर किसी ने की तो वो थे राज कपूर। आर के स्टूडियो की स्थापना करके राज कपूर ने बॉलीवुड के स्टार्स को बिजनेस मैन बनने की राह दिखाई। राज कपूर के वो सपना आज सैंकड़ों लोगों का रोजगार है।

पवित्र ‘गंगा’ को बचाना है

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009


गंगा जीवन का दूसरा नाम है। दुनियाभर में ऐसी कोई नदी नहीं जो इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जिंदगी देती है। लेकिन गंगा की हालत खराब है। शहरों और उद्योगों के कूड़े करकट ने गंगा की रफ्तार थाम दी है। लेकिन अब सरकार को भी समझ आने लगा है। जिंदगी बचानी है तो गंगा को बचाना होगा।

केन्द्र सरकार ने मिशन क्लीन गंगा शुरू की है। इसके लिए नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी का गठन किया गया है। सरकार का दावा है कि साल 2020 तक गंगा को साफ कर लिया जाएगा। मिशन क्लीन गंगा में 400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का खर्च आएगा। इसमें से 100 करोड़ डॉलर वर्ल्ड बैंक से मिलेगा।
बाइट- वर्ल्ड बैंक वाले की।
मिशन है कि अगले दस सालों में शहरों से कोई भी कचरा गंगा में न गिरे। लेकिन क्या हम सरकार के इस दावे पर भरोसा कर सकते हैं। मुश्किल है, क्योंकि इतिहास इसकी इज़ाजत नहीं देता। 1985 में शुरू हुए गंगा एक्शन प्लान के अंतर्गत अभी तक 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा रुपए खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। अभी भी शहरों और उद्योगों का 45 फीसदी कचरा गंगा में गिरता है। ज़ाहिर है गंगा एक्शन प्लान का पैसा गंगा की जगह अफसरों और नेताओं की जेब में चला गया।

दरअसल मोक्ष की नगरी काशी। देश भर से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लोग मोक्ष की तलाश में बनारस आते हैं। घंटों गंगा मैय्या की जय-जयकार करते हैं। श्रद्धालुओं के लिए गंगा एक महज एक नदी नहीं बल्कि आस्था और विश्वास का प्रतीक है। लेकिन धर्म के रूप में बहने वाली गंगा मैली हो गई है।
25 साल पहले राजीव गांधी ने सेन्ट्रल गंगा कमेटी बनाई। जिसकी देख रेख में गंगा को दो चरणों में साफ करना था। पहले चरण में 261 योजनाएं बनीं जिसमें से 251 को पूरा माना गया। दूसरा चरण २२ सौ करोड़ रुपए में शुरू हुआ जिसमें 435 योजनाएं बनी। गंगा को साफ करने के लिए 1503 करोड़ रुपए पानी की तरह बहा दिए गए लेकिन गंगा मैली की मैली ही रही। लेकिन गंगा के नाम पर राजनीति करने वालों की दुकान खूब फली फूली।
कैग रिपोर्ट की मानें तो अब तक गंगा के नाम पर कई हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं लेकिन गंगा की हालत बद से बदतर होती जा रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा का पानी नहाने के लायक तक भी नहीं है। वाराणसी में रोजाना 22 करोड़ लीटर पानी सीवेज में जाता है। जबकि यहां के सीवेज केंद्र में महज 10 करोड़ लीटर पानी ही ट्रीट हो पाता है यानि 12 करोड़ लीटर गंदा पानी गंगा में चला जाता है।
जाहिर है खतरे की घंटी बज चुकी है। अगर अब भी हम गंगा की सफाई को लेकर पहले जैसे लापरवाह बने रहे तो हालात काबू से बहार हो जाएंगे। देश की संस्कृति की प्रतीक गंगा को बचाने के लिए जरूरत है एक भागीरथी प्रयास की।
गंदगी होने के बाद भी आस्था लोगों को गंगा के तट तक खींच ही लाती है। धार्मिक रीति रिवाज के लिए लोगों को मजबूरन गंगा की शरण में आना पड़ता है। हरिद्वार दूर होने की वजह से दिल्ली और आसपास के लोग ब्रजघाट पर आने के लिए मजबूर हैं। सभी जानते हैं कि गंगा मैली है लेकिन मन में एक विश्वास है कि गंगा की गोद में गंदगी भी साफ हो जाती है।

शाहरुख ने अमिताभ को गले लगाया

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009


बादशाह और शहंशाह हुए एक। जी हां, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान ने सारे गिले-शिकवे को भुलाकर दोस्ती की नई पारी की शुरुआत कर दी है। दरअसल अमिताभ बच्चन की आने वाली फिल्म ‘पा’ की चर्चा इन दिनों हर तरफ है। अमिताभ बच्चन की इस फिल्म में खास बात ये है कि अभिषेक अमिताभ के पिता बने हैं। अमिताभ ने फिल्म में एक ऐसे बच्चे का रोल निभाया है जो प्राजेरिया नाम की एक बीमारी से पीड़ित है। ये फिल्म इस शुक्रवार को रिलीज हो रही है गुरुवार को मुंबई में इसका प्रीमियर हुआ। जिसमें पूरा बॉलीवुड जमा हुआ। खास बात ये रही की प्रीमियर के मौके पर शाहरुख खान भी पहुंचे और गले लगाकर बिग बी को बधाई दी। शाहरुख के अलावा आमिर, अक्षय कुमार, अजय देवगन, यश चौपड़ा, ऋतिक रौशन, जुही चावला, आशुतोष गोवरीकर, बिधु बिनोद चौपड़ा समते कई जानी मानी हस्तियां प्रीमियर के मौके पर पहुंची।