बिहार, विकास, बिरादर...और वोट

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

विकास तो हुआ है लेकिन उस पैमाने तक नहीं, ताकि वोट बिरादर पर हावी हो। विकास की हवा तो है लेकिन लहर पैदा नहीं हो पाई। वोटर से लेकर नेताजी तक पूरे कंफ्यूज हैं। चुनावी एजेंडा बन ही नहीं पाया। कुल मिलाकर नीतीश अंधेरे में तीर मारने की पूरी जुगत में लगे हैं तो लालू जी तेज आंधी में लालटेन के सहारे नए रास्ते तलाश रहे हैं। यानि बिहार में खिचड़ी चुनाव की तैयारी हो चुकी है।

पांच साल पहले जैसे ही नीतीश की सरकार सत्ता में आई तो 90 दिन के अंदर के कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने क बात कही गई, कुछ हद अपराध पर लगाम भी लगे लेकिन समयसीमा फेल हो गई। लालू जी का जंगल राज खत्म हो गया था, एक नए सबेरे के साथ बिहार की फिजाएं बदलने लगी थी। जेपी आंदोलन के दो सिपाही आमने-सामने थे, टक्कर अब भी कांटे की थी। क्योंकि लालू जी ताकत अब भी कम नहीं हुई थी वो रेल पर सवार होकर बिहार की राजनीति कर रहे थे तो नीतीश बिहार को संवारने में लगे थे।

बिहार में जंगलराज स्थापित करने के नाम से बदनाम लालू को रेलवे में इस कदर कामयाबी मिली कि वो आईआईएम से लेकर हॉवर्ड यूनिवर्सिटी तक स्टूडेंटों को मैनेजमेंट का गुर सिखाने लगे। घाटे में चल रहे रेलवे मुनाफे की पटरी पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगा। लेकिन बदनामी के दाग धोने के लिए ये काफी नहीं था। लोकसभा चुनाव में नीतीश ने कुछ दिन की सरकार की उपलब्धियों को भुनाते हुए बिहार से लालू राज का खात्मा ही कर दिया। जिस बल पर वो रेल पर काबिज थे, वो ताकत क्षणभर में गायब हो गई। नीतीश ने इस कदर सटीक निशाने पर तीर साधा कि लालू जी के लालटेन की लौ दिखाई ही नहीं देखने लगी। लालू की हर चुनावी दांव फेल हो गया, वोटिंग मशीन दबाने से लेकर चुनावी सभा में चुटकी लेते हुए खैनी मांग कर खाने का शिगूफा वोटरों का खूब मनोरंजन किया, वोटरों ने भी लालू जी से वोटिंग मशीने दबाने का तरकीब तो सीख लिए लेकिन जब दबाने की बारी आई तो वोटरों ने लालटेन नहीं तीर को चुना। लेकिन तब भी लालू हार मानने वाले नहीं थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था उनका हर दांव फेल हो रहा है और लोगों ने उन्हें नकार दिया है, भला विश्वास हो भी तो कैसे? 15 साल से लालू अपने अंदाज में राज कर रहे थे, जब खुद पर घोटाले का साया आया तो धर्मपत्नी को रातोंरात गद्दी पर बिठा दिया। लालू जी ने प्रदेश में एक जमीन तैयार की थी जिसे उन्हें इतनी जल्दी खोने की उम्मीद नहीं थी।

वहीं नीतीश बिना किसी खींचतान के 5 साल तक बिहार में बने रहे। लालू के हमले से बेपरवाह नीतीश पर इस बीच अपनों ने ही कई हमले किए। पार्टी के कई नेताओं ने नीतीश सरकार के खिलाफ बगावती तेवर अपना लिया, सड़क से लेकर विधानसभा तक नीतीश का विरोध हुआ लेकिन नीतीश टस से मस नहीं हुए। जिसने भी नीतीश पर निशाना साधा उसके पर कतर दिए गए या फिर उन्हें पार्टी में इस कदर अलग-थलग कर दिया गया कि वे खुद दूसरे के हाथ थाम लिए या फिर पंगू बन कर रह गए। एक समय नीतीश के दाहिने हाथ कहे जाने वाले लल्लन सिंह भी नीतीश पर दबाव बनाने के लिए कई हथकंडे अपनाए, लेकिन नीतीश की बिछाए बिसात में वो उलझ कर रह गए। नीतीश अब तक अपनी पहचान विकासपुरूष के रूप में बना चुके थे। आर्थिक जानकार भी बिहार और नीतीश की वाहवाही करने लगे, सारे आंकड़े नीतीश के पक्ष में थे। कामयाबी का श्रेय बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की सरकार से ज्यादा नीतीश को मिलने लगा। सबपर भारी नीतीश की रणनीति पड़ी।

लोगों में चर्चा का विषय गठबंधन सरकार की कामयाबी नहीं विकासपुरूष नीतीश की होने लगी। मैं भी बिहार का रहने वाला हूं लालू युग के करीब सालभर बाद जब बिहार गया तो फिजाएं बदली हुई थी, सोचे थे कि स्टेशन से उतकर घर जाने में ढाई से तीन घंटे तो लगेंगे ही लेकिन सफर इतना आसान था कि महज एक घंटे में ही घर के दरवाजे पर दस्तक दे दी। बिहार में हेमामालिनी के गाल जैसी सड़क बनाने की बात करने वाले लालू जी ना सही, नीतीश ने वो कर दिखाया। सड़कों पर महानगरों की तरह गाड़ियां दौड़ती नजर आईं। जहां लोग हिचकोले के आदी हो गए थे। नीतीश के विकास का वादा सड़क पर पूरे रंग में दिखा, लेकिन शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए।

आज नीतीश अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं फिर मैदान में हैं लेकिन कंफ्यूज हैं। राजनीतिक समीकरण बिगड़ा हुआ है केवल विकास के एजेंडे के साथ नैय्या पार लगना मुश्किल लगता है। पिछले चुनाव के तरह बदलाव के भी बयार नहीं है। जाति समीकरण फिर हावी है। सालों पहले अपनों ने जो बगावत किया था वो आज ताल ठोंक रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं कि देखते हैं कि किसमें कितना है दम, खास बात ये है कि वो अलग-अलग जाति से हैं। और वो ही नीतीश को सत्ता से बेदखल करने में लगे हैं। इस बीच लालू और पासवान एक होकर नीतीश पर निशाना साध रहे हैं, एक साथ नीतीश पर कई हमले हो रहे हैं। विपक्ष विकास के दावे को खोखला करार दे रहा है और जनता से एक मौका मांग रहा है। भले ही लालू की ताकत कम हो गई हो लेकिन राजनीतिक अनुभव तो आज भी उनके साथ है। अगड़ी जाति को दुत्कारने वाले लालू का अब नारा ही बदल गया है। एक समय ‘भूरा बाल साफ करो’ का नारा देने वाले लालू अगड़ी जाति को अब 10 फीसदी आरक्षण देने की बात कह रहे हैं। यही नहीं, बिहार को रेलवे की तरह एक नई पहचान देने का वादा कर रहे हैं।

लेकिन इन सबके बीच अब भी नीतीश की फुफकार कम नहीं हुई है भले ही कंफ्यूज हैं लेकिन विकास को ही वो प्राथमिकता दे रहे हैं। बीजेपी अब भी नीतीश की पीछे-पीछे जी-हुजुरी कर रही है। बीजेपी के स्टार प्रचारक मोदी और बरुण गांधी को चुनावी समर में नीतीश की नो एंट्री के आगे बीजेपी भी नतमस्तक हो गई है। सभी दल चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंक दी है, हर दिन कई रैलियां हो रही हैं। अगर नीतीश विकास के दम अपनी नैय्या पार लगा लेते हैं तो निश्चित ही उनका कद गठबंधन से बड़ा हो जाएगा, अगर असफल हुए तो लालू की वापसी होगी। परंतु एक बात तो साफ है कि अब लोग मसकरी नहीं विकास को देखकर वोट डालने लगे हैं, राज्य का एक बड़ा तबका विकास का रास्ता चुन चुका है। जो भी हो बिहार में जिसकी भी सरकार बने, उसे काम करके दिखाना होगा, क्योंकि बिहार में विकास की तेज लहर न सही, हवा तो चल ही चुकी है...।

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