हर तीसरा भारतीय डिप्रेशन का शिकार

बुधवार, 27 जुलाई 2011

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सर्वे कर ये जानने की कोशिश की कि वो कौन सा देश है जहां डिप्रेशन के सबसे ज्यादा मामले आते हैं। इस सर्वे के नतीजे बेहद ही चौंकाने वाले हैं। जी हां, दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों में भारत ही वो देश है जहां सबसे ज्यादा लोग डिप्रेशन का मरीज बन रहे हैं। डिप्रेशन एक ऐसी बीमारी है जो विकराल रूप ले ले तो कुछ भी हो सकता है। डिप्रेशन का शिकार मरीज अचानक पूरे समाज से कट जाता है और अगर वक्त पर इलाज नहीं मिला तो मरीज खुदकुशी तक कर लेता है। यूं तो डिप्रेशन दिमाग की एक दशा होती है, लेकिन अगर ये गंभीर रूप ले ले, तो इसे कहा जाता है MDE यानि मेजर डिप्रेसिव एपिसोड।

WHO ने ये सर्वे दुनिया भर के 18 देशों में किया। करीब 90 हजार लोगों का इंटरव्यू किया गया इनमें 36 फीसदी लोग भारत में MDE यानि मेजर डिप्रेसिव एपिसोड का शिकार हैं। दूसरे नंबर पर है फ्रांस। फ्रांस में 32.3 फीसदी लोग MDE के शिकार हैं। तीसरे नंबर पर है दुनिया का सबसे विकसित माना जाने वाला देश अमेरिका। यूएस में 30.9 फीसदी लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। इस सूची में सबसे नीचे है चीन। जहां डिप्रेशन रेट है महज 12 फीसदी।

दुनिया भर में 121 मिलियन लोग डिप्रेशन का शिकार होते हैं। जिनमें से 8.5 लाख लोग डिप्रेशन के चलते अपनी जान तक दे देते हैं। बात करें भारत की तो सर्वे के मुताबिक आमतौर पर मिडल एज में ही लोग डिप्रेस रहते हैं। भारत में डिप्रेशन के शिकार लोगों की औसत उम्र 32 साल के आसपास है। इससे भी चौंकाने वाली बात ये है कि भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज्यादा डिप्रेशन है। पुरुष और महिलाओं के बीच का 2:1 का अनुपात है। मतलब ये कि दो महिलाओं पर एक पुरुष को डिप्रेशन है। महिलाओं के डिप्रेस होने के पीछे बड़ा कारण है साथी। वजह चाहे तलाक हो, या फिर साथ छूट जाना, या फिर मौत।

भारत में लोग डिप्रेशन को एक उदासी की तरह ही देखते हैं और ऐसे में लोग डिप्रेशन के बारे में विशेषज्ञों से राय लेने से कतराते हैं जिसका नतीजा काफी घातक हो जाता है। डिप्रेशन एक डिसआर्डर है, जिसमें उदासी की भावना किसी इंसान को दो हफ्ते या इससे भी ज्यादा लंबे वक्त तक घेरे रहती है। इससे लाइफ में उसकी दिलचस्पी कम हो जाती है। उसमें निगेटिव फीलिंग्स भी आ जाती हैं। किसी काम के अच्छे नतीजे की उसे बिल्कुल आशा नहीं रहती।

डिप्रेशन में किसी भी इंसान को अपना एनर्जी लेवल लगातार घटता महसूस होता है। इस तरह की भावनाओं से वर्कप्लेस पर किसी भी इंसान की परफॉर्मेंस पर असर पड़ता है। उसकी रोजमर्रा की जिंदगी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। इस तरह के डिप्रेशन को क्लिनिकल डिप्रेशन कहा जाता है।
डिप्रेशन के लक्षण :-
- लगातार उदासी से घिरे रहना
- बेचैनी महसूस करना
- चिड़चिड़ापन महसूस करना
- जिंदगी से कोई उम्मीद न होना
- हर वक्त जिंदगी को बोझ मानना
- मनपसंद काम से भी मन ऊबना
- शरीर में एनर्जी लेवल कम महसूस होना
- नींद न आना
- तड़के नींद खुल जाना
- भूख कम लगने से लगातार वजन गिरना
- मन में खुदकुशी जैसे बुरे ख्याल आना

ऐसा नहीं है कि डिप्रेशन सिर्फ पुरुषों या महिलाओं में होता है। बल्कि डिप्रेशन के शिकार आज की तारीख में बच्चे भी हो रहे हैं। स्कूल जाने वाले बच्चों में डिप्रेशन का मामला लगातार ज्यादा देखा जा रहा है और यही वजह है कि बच्चों में सुसाइड की घटना पहले से बढ़ी हैं। बड़ी बात ये है कि बच्चों में डिप्रेशन के कारण बहुत छोटे-छोटे होते हैं। पैरेंट्स की उम्मीदों पर पढ़ाई में खरा न उतरना, घर में दो बच्चों की तुलना से किसी एक बच्चे में डिप्रेशन आ जाना, मां-बाप के आपसी संबंध ठीक न रहने से बच्चे में डिप्रेशन आ जाना।

सवाल उठता है कि डिप्रेशन को दूर कैसे भगाएं? डॉक्टरों के मुताबिक डिप्रेशन को खत्म करने का सबसे बड़ा हथियार है आत्मविश्वास। अगर आप आत्मविश्वास से भरपूर हैं तो ये मान कर चलें कि आप अपने आसपास को भी संतुष्ट रखेंगे। मतलब ये कि असंतोष डिप्रेशन का एक बड़ा कारण है। असंतोष की वजह से आपमें नकारात्मक सोच पनपेगी और यही धीरे-धीरे डिप्रेशन का रूप ले लेगा। इसलिए जरूरी है कि आप खुद का आत्मविश्वास बनाए रखें। एनर्जी लेवल कम न होने दें।

दूसरी सबसे बड़ी चीज है हर हाल में खुश रहना। डॉक्टर कहते हैं कि हर हाल में खुश रहिए क्योंकि खुशी ही हमारी सेहत का मूलमंत्र है। डिप्रेशन का सबसे बड़ा टॉनिक है खुशनुमा माहौल, अच्छी बातें, अच्छी किताबों का साथ और पॉजीटिव थिंकिंग।

डिप्रेशन से बचने का तीसरा बड़ा उपाय है अपने तौर-तरीकों में बदलाव। अपने काम करने के तरीके में छोटे-मोटे बदलाव। मतलब ये कि इस दौरान आप अपने अधूरे शौक को पूरा करने की कोशिश करें। टारगेट बनाएं और किसी काम को पूरा करने के छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करें। ऐसा करने से डिप्रेशन नहीं होगा। छोटे-छोटे लक्ष्य पूरे होने पर आत्मविश्वास बढ़ता रहेगा और तनाव पास नहीं आएगा।

इसके अलावा अगर फिर भी आपका डिप्रेशन खत्म नहीं हो रहा हो, तो फौरन डॉक्टर से मिलें। डॉक्टरों की तरफ से दी जाने वाली थेरेपी और दवाओं का इस्तेमाल करें। लेकिन इस बात का ख्याल रखें कि आपका डिप्रेशन लंबे समय तक कायम न रहे नहीं तो ये घातक भी साबित हो सकता है।

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ऐश्वर्या मां बनने वाली हैं, अमिताभ बेहद

मंगलवार, 21 जून 2011

बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन के आंगन में किलकारियां गूंजने वाली है1 ऐश्वर्या राय बच्चन मां बनने वाली हैं। खुद अमिताभ ने सोशल नेटवर्किंग साइट टि्वटर पर ये खुशखबरी दी है। बिग बी ने ट्वीट किया है कि वो दादा बनने वाले हैं।

अमिताभ बच्चन ने अपने ट्वीट में लिखा है कि ‘मैं जल्द दादा बनने वाला हूं। ऐश्वर्या मां बनने वाली हैं। मैं बेहद खुश हूं।‘

मालूम हो कि इससे पहले कई बार अमिताभ से उनके चाहने वाले पूछते थे कि आप दादा कब बनेंगे। इसके जवाब में अमिताभ ने कहा करते थे कि जब ये खुशी का लम्हा आएगा तो वो अपने चाहने वालों से जरूर शेयर करेंगे और आज उन्होंने अपने चाहने वालों को ये खुशखबरी दे दी है।

अभी ऐश्वर्या और अभिषेक ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लोगों को इंतजार है कि अब खुद ऐश्वर्या और अभिषेक इस खुशखबरी के बारे में अपने चाहने वालों को बताएं।

मुबारक के बाद अब मिस्र का क्या होगा?

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मिस्र में 18 दिनों के सत्ता विरोधी प्रदर्शन के बाद आखिरकार राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने अपना पद छोड़ दिया है और देश की सत्ता सेना के हाथों में सौंप दी है। मुल्क के उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान ने शुक्रवार को टीवी पर दिए गए बयान में इसका ऐलान किया। इस खबर के फैलते ही मिस्र में जश्न शुरू हो गया है। काहिरा में मौजूद लाखों प्रदर्शनकारियों ने नारे लगाकर, झंडे फहराकर और कारों का हॉर्न बजाकर अपनी खुशी का इजाहर किया।

मुबारक का राष्ट्रपति पद छोड़ना मिस्र की जनता की पहली जीत है । लेकिन लोकतंत्र की इस लड़ाई में आगे और कई पड़ाव हैं और चुनौतियां भी। साथ ही मध्यपूर्व के दूसरे देशों के लिए भी ये क्रांति एक आइना है।

मिस्र की जनता ने पहली जीत तो जीत लिया है, लेकिन स्याह अतीत और सुनहरे वर्तमान के बाद सुखद भविष्य की गारंटी अभी भी नहीं। मुबारक तो चले गए। लेकिन इसके बाद क्या होगा? क्योंकि मुबारक अपने पीछे छोड़ गए हैं एक ऐसा तंत्र जिसकी कमान फौज के हाथ में है। ऐसे में पांच सवाल उभर कर आ रहे हैं।

1. क्या फौज संविधान संशोधन और राजनीतिक सुधार की प्रकिया को आगे लेकर जाएगी?
2. क्या लोकतांत्रिक संस्थानों को बल मिलेगा,
3. क्या देश में जल्द निष्पक्ष चुनाव कराए जाएंगे,

4. क्या सत्ता की कमान किसी लोकप्रिय चेहरे के हाथों होगी?
4. कहीं नासेर, सदात और मुबारक की तरह कोई फौजी ही तो आगे चलकर राषट्रपति और फिर तानाशाह तो नहीं बन जाएगा?

लोग तमाम तरह के कयास लगा रहे हैं। जानकारों की मानें तो एक तरीका ये है कि लोकतंत्र समर्थक नेता अल बरदेई, एल घाद पार्टी के एयमन नूर या फिर कोई आम आंदोलनकारी को मुल्क की अगुवाई करने का मौका दिया जाए। लेकिन ये सब इस पर निर्भर करेगा कि सत्ता हस्तांतरण को लेकर अलकायदा और इस्लामिक कटटरपंथ के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका अपने अहम सहयोगी मिस्र पर किस तरह का दबाव बनाता है।

जानकारों के मुताबिक मुमकिन है कि किसी राष्ट्रीय एकता गठबंधन की अंतरिम सरकार बने। साथ ही राष्ट्रपति पद के कार्यकाल और संविधान संशोधन को तय करने के लिए जनमत संग्रह भी हो।

लेकिन सवाल ये भी है कि उपराष्ट्रपति और 30 साल से मुबारक की परछाई रहे उमर सुलेमान की क्या भूमिका रहेगी? मुबारक के सिक्रेट सर्विस के लंबे समय तक मुखिया रहे सुलेमान अपने अमानवीय हथकंडो की वजह से भी चर्चा में रहे हैं। सीआईए के नज़दीकी सहयोगी रहे सुलेमान क्या सत्ता पर दावा करेंगे? कहीं मिस्र बांग्लादेश, बर्मा और पाकिस्तान की तरह सैन्य सरकार के फंदे में तो नहीं फंस जाएगा?

अमेरिका को इस बात की भी चिंता है कि अब मुबारक के जाने के बाद कहीं पूरे क्षेत्र में अमेरिका और इजरायल विरोधी भावनाओं को बल ना मिले। अमेरिका मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे इस्लामिक संगठन के हाथ में सत्ता पसंद नहीं करेगा। मिस्र को फिलहाल एक सवाल का जवाब जरूर मिल गया है। लेकिन अभी कई और सवालों का जवाब ढूंढना है।

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इस साल गर्मी निकालेगी तेल, बारिश बिगाड़ेगी खेल

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

आनेवाले सालों में हरियाली भारत के नक्शे से गायब हो सकती है। हिंदुस्तान रेगिस्तान बन सकता है। ये एक ऐसी हकीकत जो बेहद कड़वी है। वैज्ञानिकों ने भारत पर मंडरा रहे खतरे की तरफ इशारा किया है और कहा कि ये डरावना सच 2050 तक हकीकत में तब्दील हो सकता है। पुणे की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल एंड मेटेरेयोलॉजिकल रिसर्च की एक स्टडी तो यही बता रही है।

ये संस्था भारत में जलवायु परिवर्तन पर नजर रखनेवाली जानीमानी सरकारी संस्थानों में से एक है। इसके तीन वैज्ञानिकों ने अमेरिका, फ्रांस और थाइलैंड के मौसम वैज्ञानिकों के साथ भारत में बदलते तापमान पर शोध किया। नतीजे चौंकाने और डराने वाले हैं। रिसर्च के नतीजों के मुताबिक सदी के अंत तक भारत में तापमान 6 डिग्री तक बढ़ जाएगा। अगले 30-40 साल में तापमान में करीब 4 डिग्री का इजाफा होगा। दिन का न्यूनतम तापमान बढ़ता जाएगा। गर्मियों में रात का तापमान भी दिन की झुलसा देनेवाली तपिश के बराबर होगा। गर्मी का मौसम और लंबा हो जाएगा। यानि हरियाली धीरे-धीरे रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगी।

जरा सोचिए कि 50 डिग्री के पार पारा चला गया तो क्या हाल होगा। आपका एयरकंडीशनर तक नकारा हो जाएगा। कूलर का पानी भी खौल उठेगा। बाहर निकलेंगे तो चेहरा झुलस जाएगा।
इन सबकी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग है। कारखानों और गाड़ियों के धुएं से फैलता बेकाबू प्रदूषण, जिसके चलते ग्रीन हाउस के प्रभाव से निकलने वाली गैस बेकाबू होती जा रही है। धड़ाधड़ काटे जा रहे पेड़ और इन सबके चलते कुदरत में बदलाव होता जा रहा है।

रिसर्च के मुताबिक पहले तो तापमान 2 डिग्री से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा और फिर ये वजहें इसे और फैलने का मौका दे देंगी। इसकी बानगी है साल 2009 में भारत में पड़ी बेतहाशा गर्मी। आधिकारिक तौर पर 2009 भारत का अबतक का सबसे गर्म साल रहा है और 2009 में तापमान बाकी सालों के मुकाबले 1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा बढ़ गया।

मौसम विभाग के मुताबिक जब गर्मी को लेकर भारत में पिछले 108 सालों का रिकॉर्ड देखा गया तो ये पता चला कि इस दौरान गिने गए कुल 12 सबसे गर्म सालों में से 8 साल सिर्फ साल 1999 से 2009 तक के बीच में थे। यानि पिछले 10 सालों में ही गर्मी ने 108 साल के रिकॉर्ड को धराशाई कर दिया। वहीं पिछले साल यानि 2010 में दुनिया भर में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी ने लोगों को बेहाल करके रख दिया।

वहीं दूसरी तरफ IITM पुणे के वैज्ञानिकों की मानें तो एक तरफ जब तेजी गर्मी का कहर कम होगा तो दूसरी तरफ बारिश कहर बरपाएगा। IITM पुणे की रिसर्च में कुछ ऐसे ही भयंकर तथ्य सामने आए हैं। वैज्ञानिकों की टीम ने इस रिसर्च के जरिए जो आंकड़े हासिल किए हैं। उसके मुताबिक भारत में सालाना औसत बारिश में 8-10 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन बारिश के मामले में समस्या इसके सालाना औसत से नहीं, बल्कि इसकी रफ्तार और मॉनसून की टाइमिंग से है। ऐसे में बारिश हद से ज्यादा मूसलाधार और भारी होगी।

मॉनसून के दिनों में हद से ज्यादा बारिश होने से खेती को काफी नुकसान होगा। मई और अक्टूबर के बीच में होनेवाली बारिश करीब 20 फीसदी तक बढ़ जाएगी। इसकी वजह से करीब 20 फीसदी फसल बर्बाद हो जाएगी। चारों तरफ बाढ़ और बादल फटने का खतरा मंडराने लगेगा। दिल्ली और आसपास न्यूनतम तापमान 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।

गौरतलब है कि 5 अगस्त 2010 को लेह में एकाएक बादल फटने से 100 से ज्यादा लोग मौत के आगोश में चले गए। IITM पुणे के मुताबिक मॉनसून के दौरान तापमान में अचानक आई बढ़ोतरी भी लेह त्रासदी की वजह बनी। ये इशारा था कि कुदरत अपने साथ हो रहे खिलवाड़ से किस कदर गुस्से में है। ये सबूत था कि ग्लोबल वॉर्मिग का नतीजा कितना खतरनाक हो सकता है।

इसके बाद नए साल 2011 की शुरुआत में ही ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया में आई भयानक बाढ़। अकेले ब्राजील में ही करीब 700 लोग बाढ़ की चपेट में आकर मारे गए। रिसर्च में जो दावे किए गए उससे तो यही लगता है कि हिंदुस्तान के नक्शे पर एक मौसम में सिर्फ रेत होगी तो दूसरे मौसम में सिर्फ पानी होगा।

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नीतीश की जीत में कोई रहस्य नहीं..लालू जी!

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

बार-बार दोहराया जाता है कि बिहार के इतिहास को भुलाया नहीं जा सकता, देश के विकास में बिहार का अहम योगदान रहा है, कई ऐसे महापुरुष थे, जो थे तो बिहार के लेकिन उनकी पहचान बिहार तक ही सीमित नहीं थी। जब भी इतिहास की बात होती तो उनके चर्चे जरूर होते हैं। लेकिन वर्तमान में बिहार और बिहार के लोग अपनी पहचान इतिहास में दर्ज कराने में असफल रहे, या फिर वो उस लायक साबित ही नहीं हुए कि उनका नाम और उनके काम को सराहा जाए।

लेकिन बिहार में 24 अक्टूबर को एक युग का अंत हो गया और उसके साथ ही दूसरे युग ने स्वर्णिम दस्तक दे दी है। भले ही इसे इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाने में अभी वक्त और लगे, लेकिन ऐतिहासिक तो शुरू के दिनों से ही हो गया। सीधे लफ्जों में कहें तो नीतीश ने एक युग का अंत कर दिया है और दूसरे युग में ऐतिहासिक कदम रख दिया है।

जी हां, बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने जो फतह हासिल की है उससे उन्हें ऐतिहासिक विकासपुरुष तो बना ही दिया है। भले ही उनकी इस कामयाबी को इतिहास के पन्नों में तुरंत जगह नहीं मिले। नीतीश ने दिखा दिया कि विकास की पूजा होती है। लोग अब जाति-पाति से ऊपर उठकर सोचने लगे हैं। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने पिछले 5 सालों में बिहार को एक नई दिशा देने की कोशिश की, जो अपने राह से भटक गई थी।

नीतीश ने लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की, भले ही उन समस्याओं का समुचित समाधान नहीं हुआ हो, लेकिन लोगों में नीतीश के प्रति विश्वास जगा, लोगों में संदेश गया कि ये नेता हमारे लिए ईमानदारी से कोशिश कर रहा है इसे एक और मौका देना चाहिए। वैसे भी नीतीश चुनावी सभाओं में एक ही बात कहते थे...'जिसने बिहार को बदहाल किया उसे आपने 15 साल दिया और मैं संवारने की कोशिश कर रहा हूं तो मुझे केवल 5 साल ही देंगे'... इस जुमले के बाद सीधे नीतीश कहते थे कि मुझे 5 साल और दीजिए ताकि आपसे किए वादे को पूरी तरह से पूरा कर पाऊं।

लोगों ने भी सोचा चल जब 15 साल तक अपनी बिरादरी या फिर जिसने कोई वादा ही नहीं किया, उन्हें हमने दिया तो फिर इसने तो कुछ किया है और बहुत कुछ करने का हाथ जोड़कर वादा भी कर रहा है। तो क्यों न एक मौका इसे और दिया जाए? मानो इसी बात के साथ बिहार की जनता ने अगल-बगल झांकने के बजाय एकमुश्त जाति-पाति, हिन्दु-मुस्लिम से ऊपर उठकर नीतीश के कंधों पर अपना हाथ रख दिया।

बिहार में इस बीजेपी-जेडीयू की ऐतिहासिक जीत ने अपने पीछे कई सवाल खड़े कर दिए हैं। कुछ के जवाब आने में सालों लग जाएंगे लेकिन कुछ के जवाब तो बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के 200 के आंकड़े को पार करते ही तलाश जा रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि क्या लालू युग का अंत हो गया है? अभी लालू 67 साल हैं ऐसे में अगले बिहार चुनाव तक वो 72 के हो जाएंगे, क्या लालू 72 की उम्र में एक बार फिर कोई करिश्मा कर देंगे।

ये सवाल इसलिए उठ रहा है कि बिहार में सबसे ज्यादा युवाओं की तादाद है ऐसे में 72 साल लालू युवाओं को किस तरह अपनी और लुभाएंगे, क्योंकि हर ओर युवा नेता को आगे लाने और उसे कमान सौंपने की बातें चरम पर हैं। तो क्या इस हार के साथ ही बिहार में लालू युग का अंत हो गया है? या फिर लालू अपने बेटे के हाथ में पार्टी का कमान सौंपेंगे, क्योंकि इसका आगाज लालू ने इस चुनाव में कर दिया है। जो भी हो अभी तो लालू को 5 साल की फिर कठोर बनवास मिल ही गया है।

एक और सवाल ये है कि अब पासवान का क्या होगा? क्योंकि वो तो अभी युवा हैं लेकिन करिश्मा नहीं दिखा पा रहे हैं या फिर लोगों ने उन्हें तरजीह ही नहीं देना चाहते। क्या इन्हें भी अब ऐहसास होगा कि अब जिस दलित वोटरों के बल पर वो राज करते आए थे अब पराए हो गए हैं या फिर उसने विकास का स्वाद चखकर नीतीश के पाले में अपनी जगह बना ली। जिसमें सेंधमारी फिलहाल मुमकिन नहीं है।

लालू-पासवान को अपनी हार से ज्यादा एनडीए की जीत रहस्यमय लग रही है। वो इस रहस्य से पर्दा उठाने की बात कर रहे हैं। लेकिन वो भी जानते हैं कि भूखी-प्यासी जनता को नीतीश की आधी रोटी मिल गई थी और वो अब पूरी रोटी खाना चाहती है, इसलिए उनका दामन छोड़ दिया। शायद इस कदर हार की उम्मीद तो जनता ने भी नहीं की होगी तो लालू-पासवान को तुरंत कैसे हजम हो जाएगी। वक्त के साथ सबकुछ ठीक हो जाएगा।

वहीं बिहार में अपनी अस्तित्व को तलाश रही कांग्रेस को फिर मुंह की खानी पड़ी है। राहुल बाबा का जादू बिहार के लिए फ्लॉप शो साबित हुआ, सबने नीतीश को कोसा, लेकिन बिहार की जनता ने तो उनकी बातों को सुनी लेकिन अपने फैसले पर अडिग रही।

आखिर में मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं नीतीश ने केवल ऐतिहासिक जीत ही नहीं हासिल की है, ये भी दिखा दिया कि विकास के नाम पर चुनाव जीते भी जाते हैं और वो भी रिकॉर्ड बहुमत के साथ। उन्होंने उन नेताओं और पार्टियों को संदेश भी दे दिया जब बिहार के लोग जाति-पाति से उठकर मतदान कर सकते हैं तो देश के बाकी के हिस्सों में भी इसे दोहराया जा सकता है। बस नेताओं को ईमानदारी से कोशिश करने की जरूरत है। साफ शब्दों में कहें तो नीतीश की जीत ने राजनीति की नई परिभाषा गढ़ दी है।

बिहार, विकास, बिरादर...और वोट

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

विकास तो हुआ है लेकिन उस पैमाने तक नहीं, ताकि वोट बिरादर पर हावी हो। विकास की हवा तो है लेकिन लहर पैदा नहीं हो पाई। वोटर से लेकर नेताजी तक पूरे कंफ्यूज हैं। चुनावी एजेंडा बन ही नहीं पाया। कुल मिलाकर नीतीश अंधेरे में तीर मारने की पूरी जुगत में लगे हैं तो लालू जी तेज आंधी में लालटेन के सहारे नए रास्ते तलाश रहे हैं। यानि बिहार में खिचड़ी चुनाव की तैयारी हो चुकी है।

पांच साल पहले जैसे ही नीतीश की सरकार सत्ता में आई तो 90 दिन के अंदर के कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने क बात कही गई, कुछ हद अपराध पर लगाम भी लगे लेकिन समयसीमा फेल हो गई। लालू जी का जंगल राज खत्म हो गया था, एक नए सबेरे के साथ बिहार की फिजाएं बदलने लगी थी। जेपी आंदोलन के दो सिपाही आमने-सामने थे, टक्कर अब भी कांटे की थी। क्योंकि लालू जी ताकत अब भी कम नहीं हुई थी वो रेल पर सवार होकर बिहार की राजनीति कर रहे थे तो नीतीश बिहार को संवारने में लगे थे।

बिहार में जंगलराज स्थापित करने के नाम से बदनाम लालू को रेलवे में इस कदर कामयाबी मिली कि वो आईआईएम से लेकर हॉवर्ड यूनिवर्सिटी तक स्टूडेंटों को मैनेजमेंट का गुर सिखाने लगे। घाटे में चल रहे रेलवे मुनाफे की पटरी पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगा। लेकिन बदनामी के दाग धोने के लिए ये काफी नहीं था। लोकसभा चुनाव में नीतीश ने कुछ दिन की सरकार की उपलब्धियों को भुनाते हुए बिहार से लालू राज का खात्मा ही कर दिया। जिस बल पर वो रेल पर काबिज थे, वो ताकत क्षणभर में गायब हो गई। नीतीश ने इस कदर सटीक निशाने पर तीर साधा कि लालू जी के लालटेन की लौ दिखाई ही नहीं देखने लगी। लालू की हर चुनावी दांव फेल हो गया, वोटिंग मशीन दबाने से लेकर चुनावी सभा में चुटकी लेते हुए खैनी मांग कर खाने का शिगूफा वोटरों का खूब मनोरंजन किया, वोटरों ने भी लालू जी से वोटिंग मशीने दबाने का तरकीब तो सीख लिए लेकिन जब दबाने की बारी आई तो वोटरों ने लालटेन नहीं तीर को चुना। लेकिन तब भी लालू हार मानने वाले नहीं थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था उनका हर दांव फेल हो रहा है और लोगों ने उन्हें नकार दिया है, भला विश्वास हो भी तो कैसे? 15 साल से लालू अपने अंदाज में राज कर रहे थे, जब खुद पर घोटाले का साया आया तो धर्मपत्नी को रातोंरात गद्दी पर बिठा दिया। लालू जी ने प्रदेश में एक जमीन तैयार की थी जिसे उन्हें इतनी जल्दी खोने की उम्मीद नहीं थी।

वहीं नीतीश बिना किसी खींचतान के 5 साल तक बिहार में बने रहे। लालू के हमले से बेपरवाह नीतीश पर इस बीच अपनों ने ही कई हमले किए। पार्टी के कई नेताओं ने नीतीश सरकार के खिलाफ बगावती तेवर अपना लिया, सड़क से लेकर विधानसभा तक नीतीश का विरोध हुआ लेकिन नीतीश टस से मस नहीं हुए। जिसने भी नीतीश पर निशाना साधा उसके पर कतर दिए गए या फिर उन्हें पार्टी में इस कदर अलग-थलग कर दिया गया कि वे खुद दूसरे के हाथ थाम लिए या फिर पंगू बन कर रह गए। एक समय नीतीश के दाहिने हाथ कहे जाने वाले लल्लन सिंह भी नीतीश पर दबाव बनाने के लिए कई हथकंडे अपनाए, लेकिन नीतीश की बिछाए बिसात में वो उलझ कर रह गए। नीतीश अब तक अपनी पहचान विकासपुरूष के रूप में बना चुके थे। आर्थिक जानकार भी बिहार और नीतीश की वाहवाही करने लगे, सारे आंकड़े नीतीश के पक्ष में थे। कामयाबी का श्रेय बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की सरकार से ज्यादा नीतीश को मिलने लगा। सबपर भारी नीतीश की रणनीति पड़ी।

लोगों में चर्चा का विषय गठबंधन सरकार की कामयाबी नहीं विकासपुरूष नीतीश की होने लगी। मैं भी बिहार का रहने वाला हूं लालू युग के करीब सालभर बाद जब बिहार गया तो फिजाएं बदली हुई थी, सोचे थे कि स्टेशन से उतकर घर जाने में ढाई से तीन घंटे तो लगेंगे ही लेकिन सफर इतना आसान था कि महज एक घंटे में ही घर के दरवाजे पर दस्तक दे दी। बिहार में हेमामालिनी के गाल जैसी सड़क बनाने की बात करने वाले लालू जी ना सही, नीतीश ने वो कर दिखाया। सड़कों पर महानगरों की तरह गाड़ियां दौड़ती नजर आईं। जहां लोग हिचकोले के आदी हो गए थे। नीतीश के विकास का वादा सड़क पर पूरे रंग में दिखा, लेकिन शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए।

आज नीतीश अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं फिर मैदान में हैं लेकिन कंफ्यूज हैं। राजनीतिक समीकरण बिगड़ा हुआ है केवल विकास के एजेंडे के साथ नैय्या पार लगना मुश्किल लगता है। पिछले चुनाव के तरह बदलाव के भी बयार नहीं है। जाति समीकरण फिर हावी है। सालों पहले अपनों ने जो बगावत किया था वो आज ताल ठोंक रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं कि देखते हैं कि किसमें कितना है दम, खास बात ये है कि वो अलग-अलग जाति से हैं। और वो ही नीतीश को सत्ता से बेदखल करने में लगे हैं। इस बीच लालू और पासवान एक होकर नीतीश पर निशाना साध रहे हैं, एक साथ नीतीश पर कई हमले हो रहे हैं। विपक्ष विकास के दावे को खोखला करार दे रहा है और जनता से एक मौका मांग रहा है। भले ही लालू की ताकत कम हो गई हो लेकिन राजनीतिक अनुभव तो आज भी उनके साथ है। अगड़ी जाति को दुत्कारने वाले लालू का अब नारा ही बदल गया है। एक समय ‘भूरा बाल साफ करो’ का नारा देने वाले लालू अगड़ी जाति को अब 10 फीसदी आरक्षण देने की बात कह रहे हैं। यही नहीं, बिहार को रेलवे की तरह एक नई पहचान देने का वादा कर रहे हैं।

लेकिन इन सबके बीच अब भी नीतीश की फुफकार कम नहीं हुई है भले ही कंफ्यूज हैं लेकिन विकास को ही वो प्राथमिकता दे रहे हैं। बीजेपी अब भी नीतीश की पीछे-पीछे जी-हुजुरी कर रही है। बीजेपी के स्टार प्रचारक मोदी और बरुण गांधी को चुनावी समर में नीतीश की नो एंट्री के आगे बीजेपी भी नतमस्तक हो गई है। सभी दल चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंक दी है, हर दिन कई रैलियां हो रही हैं। अगर नीतीश विकास के दम अपनी नैय्या पार लगा लेते हैं तो निश्चित ही उनका कद गठबंधन से बड़ा हो जाएगा, अगर असफल हुए तो लालू की वापसी होगी। परंतु एक बात तो साफ है कि अब लोग मसकरी नहीं विकास को देखकर वोट डालने लगे हैं, राज्य का एक बड़ा तबका विकास का रास्ता चुन चुका है। जो भी हो बिहार में जिसकी भी सरकार बने, उसे काम करके दिखाना होगा, क्योंकि बिहार में विकास की तेज लहर न सही, हवा तो चल ही चुकी है...।

टाइटैनिक जहाज के डूबने का खुला राज

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कई मंजिला जहाज समुंद्र में डूब गया और साथ में दे गया जलसमाधि 1517 लोगों को। टाइटैनिक डूबने के करीब 100 साल बाद इस त्रासदी का सच सामने आया है। टाइटैनिक पर छपी नई किताब में दावा किया गया है कि जहाज के डूबने के लिए दुर्घटना नहीं बल्कि चालक दल की गलती जिम्मेदार थी। यही नहीं, किताब के मुताबिक हिमखंड यानि आईसबर्ग से टक्कर के बाद भी जहाज पर सवार यात्रियों की जान बचाई जा सकती थी।

अब तक यही माना जाता रहा है कि 14 अप्रैल 1912 को दुर्घटना के वक्त टाइटैनिक जहाज तेज गति से चल रहा था और चालक दल हिमखंड को देख नहीं पाया और इसी हिमखंड से टकराकर जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। लेकिन टाइटैनिक डूबने की असली वजह यह नहीं थी बल्कि टाइटैनिक का डूबना चालक दल की गलती का नतीजा था।

ये खुलासा टाइटैनिक के बारे में छपी 'गुड एज गोल्ड' नाम की नई किताब में किया गया है। इस किताब में दावा किया गया है कि चालक दल चाहता तो इस भयानक त्रासदी को टाला जा सकता था। द टेलिग्राफ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस घटना के सौ साल बाद इस पुस्तक में कहा गया है कि हिमखंड को देखने के बाद चालक दल के पास काफी समय था और वे टाइटैनिक को उससे टकराने से बचा सकते थे। लेकिन वे इस कदर भयभीत हो गए कि जहाज को उन्होंने उसी दिशा में मोड़ दिया। जब तक गलती का पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

दरअसल दुनिया का सबसे बड़ा जहाज टाइटैनिक 10 अप्रैल 1912 को साउथंपटन से न्यूयॉर्क के लिए अपनी पहली यात्रा पर निकला था लेकिन चालक दल की गलती की वजह से समंदर में समा गया। टाइटैनिक को अभेद्ध समझा जाता था, कहा जाता था कि ये जहाज कभी डूब नहीं सकता। टाइटैनिक पर दो तरह के स्टियरिंग सिस्टम काम कर रहे थे। जहाज पर मौजूद चालक दल के कुछ सदस्यों को एक सिस्टम की जानकारी थी तो बाकी को दूसरे सिस्टम की। लेकिन अचानक इन दोनों सिस्टम के बीच तालमेल टूट गया और हिमखंड से टक्कर के बाद दोनों सिस्टम के चालक दल अलग-अलग दिशा में काम करने लगे और टाइटैनिक समंदर के आगोश में समा गया।

लुईस पैटन के मुताबिक उनके दादा लाइटोलर को इस गलती का एहसास हो गया था। जहाज डूबने से पहले उन्होंने चार वरिष्ठ अधिकारियों के साथ फर्स्ट ऑफिसर्स केबिन में एक अंतिम बैठक भी की थी। इस बैठक में जहाज को डूबने से बचाने की हर कोशिश पर चर्चा हुई। लुईस पैटन ने अपनी किताब में यह भी दावा किया है कि टक्कर के बाद यात्रियों को डूबने से बचाया जा सकता था अगर जहाज को टक्कर के बाद उल्टी दिशा में न चलाकर वहीं स्थिर खड़ा कर दिया जाता।

दरअसल टाइटैनिक बनाने वाली कंपनी व्हाइट स्टार लाइन के चेयरमैन ने टक्कर के बाद भी कैप्टन से जहाज को धीमी गति से आगे चलाते रहने की जिद की। करीब दस मिनट तक चलने के बाद जहाज की पेंद में घुस रहे पानी का दबाव बढ़ गया जिसकी वजह से टाइटैनिक जल्दी डूब गया। अगर जहाज को टक्कर के बाद पानी में स्थिर खड़ा रखा जाता तो ये कई घंटों बाद पानी में डूबता जिससे चार घंटे की दूरी पर खड़े दूसरे जहाज से मदद मिल सकती थी और हादसे का शिकार हुए 1517 लोगों की जान बचाई जा सकती थी।

लुईस पैटन के मुताबिक उनके दादा ने ये राज सिर्फ अपनी पत्नी को बताया था। दादी ने यही राज अपनी पोती पैटन के सामने उजागर कर दिया। हालांकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि वो ये राज अपने सीने में ही दफन रखे। लेकिन दादी की मौत के 40 साल बाद पैटन को लगा कि टाइटैनिक जल त्रासदी से जुड़ा ये राज अब सिर्फ उन्हीं तक सीमित ना रहे बल्कि दुनिया को भी पता चले की टाइटेनिक डूबने की असली वजह हादसा नहीं, बल्कि एक गलती थी।